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75. अल-क़ियामह [ कुल आयतें - 40 ]

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सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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●═══════════════════✒
नहीं, मैं क़सम खाता हूँ क़ियामत के दिन की, (1)
_______________________________
और नहीं! मैं क़सम खाता हूँमलामत करनेवाली आत्मा की। (2)
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क्या मनुष्य यह समझता है कि हम कदापि उसकी हड्डियों कोएकत्र न करेंगे? (3)
_______________________________
क्यों नहीं, हम उसकी पोरों को ठीक-ठाक करने की सामर्थ्य रखते हैं। (4)
_______________________________
  बल्कि मनुष्य चाहता है कि अपने आगे ढिठाई करता रहे। (5)
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पूछता है, "आख़िर क़ियामत का दिन कब आएगा?" (6)
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तो जब निगाह चौंधिया जाएँगी, (7)
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और चन्द्रमा को ग्रहण लग जाएगा, (8)
_______________________________
  और सूर्य और चन्द्रमा इकट्ठे कर दिए जाएँगे, (9)
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उस दिन मनुष्य कहेगा,"कहाँ जाऊँ भागकर?" (10)
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कुछ नहीं, कोई शरण-स्थल नहीं! (11)
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उस दिन तुम्हारे रब ही की ओर जाकर ठहरना है। (12)
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उस दिन मनुष्य को बता दिया जाएगा जो कुछ उसने आगे बढ़ाया और पीछे टाला। (13)
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नहीं, बल्कि मनुष्य स्वयं अपने हाल पर निगाह रखता है, (14)
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यद्यपि उसने अपने कितने हीबहाने पेश किए हों। (15)
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तू उसे शीघ्र पाने के लिए उसके प्रति अपनी ज़बान को न चला। (16)
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हमारे ज़िम्मे है उसे एकत्र करना और उसका पढ़ाना, (17)
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अतः जब हम उसे पढ़ें तो उसके पठन का अनुसरण कर, (18)
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फिर हमारे ज़िम्मे है उसकास्पष्टीकरण करना। (19)
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कुछ नहीं, बल्कि तुम लोग शीघ्र मिलनेवाली चीज़ (दुनिया) से प्रेम रखते हो, (20)
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और आख़िरत को छोड़ रहे हो। (21)
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कितने ही चेहरे उस दिन तरो ताज़ा और प्रफुल्लित होंगे,(22)
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  अपने रब की ओर देख रहे होंगे। (23)
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और कितने ही चेहरे उस दिन उदास और बिगड़े हुए होंगे, (24)
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समझ रहे होंगे कि उनके साथ कमर तोड़ देनेवाला मामला किया जाएगा। (25)
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कुछ नहीं, जब प्राण कंठ को आ लगेंगे, (26)
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और कहा जाएगा, "कौन हैं झाड़-फूँक करनेवाला?" (27)
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और वह समझ लेगा कि वह जुदाई(का समय) है। (28)
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और पिंडली से पिंडली लिपट जाएगी, (29)
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तुम्हारे रब की ओर उस दिन प्रस्थान होगा। (30)
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किन्तु उसने न तो सत्य माना और न नमाज़ अदा की, (31)
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लेकिन झुठलाया और मुँह मोड़ा, (32)
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फिर अकड़ता हुआ अपने लोगोंकी ओर चल दिया। (33)
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अफ़सोस है तुझपर और अफ़सोसहै! (34)
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फिर अफ़सोस है तुझपर और अफ़सोस है! (35)
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क्या मनुष्य समझता है कि वह यूँ ही स्वतंत्र छोड़ दियाजाएगा? (36)
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क्या वह केवल टपकाए हुए वीर्य की एक बूँद न था? (37)
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फिर वह रक्त की एक फुटकी हुआ, फिर अल्लाह ने उसे रूप दिया और उसके अंग-प्रत्यंग ठीक-ठाक किए। (38)
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और उसकी दो जातियाँ बनाईं -पुरुष और स्त्री। (39)
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क्या उसे यह सामर्थ्य प्राप्त नहीं कि वह मुर्दों को जीवित कर दे? (40)
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