सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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☆ सुनो! मैं क़सम खाता हूँ इस नगर (मक्का) की (1)
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☆ हाल यह है कि तुम इसी नगर में रह रहे हो (2)
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☆ और बाप और उसकी सन्तान की, (3)
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☆ निस्संदेह हमने मनुष्य को पूर्ण अनुकूलता और सन्तुलन के साथ पैदा किया। (4)
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☆ क्या वह समझता है कि उसपर किसी का बस न चलेगा? (5)
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☆ कहता है कि "मैंने ढेरों माल उड़ा दिया।" (6)
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☆ क्या वह समझता है कि किसी ने उसे देखा नहीं? (7)
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☆ क्या हमने उसे नहीं दीं दो आँखें,(8)
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☆ और एक ज़बान और दो होंठ? (9)
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☆ और क्या ऐसा नहीं है कि हमने दिखाई उसे दो ऊँचाइयाँ? (10)
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☆ किन्तु वह तो हुमककर घाटी में से गुज़रा ही नहीं (और न उसने मुक्ति का मार्ग पाया) (11)
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☆ और तुम्हें क्या मालूम कि वह घाटी क्या है! (12)
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☆ किसी गरदन का छुड़ाना, (13)
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☆ या भूख के दिन खाना खिलाना। (14)
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☆ किसी निकटवर्ती अनाथ को, (15)
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☆ या धूल-धूसरित मुहताज को; (16)
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☆ फिर यह कि वह उन लोगों में से हो जो ईमान लाए और जिन्होंने एक-दूसरे को धैर्य की ताकीद की, और एक-दूसरे को दया की ताकीद की। (17)
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☆ वही लोग हैं सौभाग्यशाली। (18)
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☆ रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों का इनकार किया, वे दुर्भाग्यशाली लोग हैं। (19)
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☆ उनपर आग होगी, जिसे बन्द करदिया गया होगा। (20)
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