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17. अल-इसरा    [ कुल आयतें - 111 ]

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सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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●═══════════════════✒
  क्या ही महिमावान है वह जो रातों-रात अपने बन्दे (मुहम्मद) को प्रतिष्ठित मस्जिद (काबा) से दूरवर्ती मस्जिद (अक़्सा) तक ले गया, जिसके चतुर्दिक को हमने बरकत दी, ताकि हम उसे अपनी कुछ निशानियाँ दिखाएँ। निस्संदेह वही सब कुछ सुनता, देखता है। (1)
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    हमने मूसा को किताब दी थी और उसे इसराईल की सन्तान के लिए मार्गदर्शन बनाया था कि " मेरे सिवा किसी को कार्य-साधकन ठहराना।" (2)
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    ऐ उनकी सन्तान, जिन्हें हमने नूह के साथ (नौका में) सवार किया था! निश्चय ही वह एककृतज्ञ बन्दा था। (3)
_______________________________
   और हमने किताब में इसराईल की सन्तान को इस फ़ैसले की ख़बर दे दी थी, "तुम धरती में अवश्य दो बार बड़ा फ़साद मचाओगे और बड़ी सरकशी दिखाओगे।" (4)
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    फिर जब उन दोनों में से पहले वादे का मौक़ा आ गया तो हमने तुम्हारे मुक़ाबले में अपने ऐसे बन्दों को उठाया जो युद्ध में बड़े बलशाली थे। तोवे बस्तियों में घुसकर हर ओर फैल गए और यह वादा पूरा होना ही था। (5)
_______________________________
    फिर हमने तुम्हारी बारी उनपर लौटाई कि उनपर प्रभावी हो सको। और धनों और पुत्रों से तुम्हारी सहायता की और तुम्हें बहुसंख्यक लोगों का एक जत्था बनाया। (6)
_______________________________
   "यदि तुमने भलाई की तो अपनेही लिए भलाई की और यदि तुमने बुराई की तो अपने ही लिए की।" फिर जब दूसरे वादे का मौक़ा आ गया (तो हमने तुम्हारे मुक़ाबले में ऐसे प्रबल को उठाया) कि वे तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दें और मस्जिद (बैतुलमक़दिस) में घुस जाएँ जैसे पहली बार वे उसमें घुसे थे और ताकि जिस चीज़ पर भी उनका ज़ोर चले विनष्ट कर डालें।(7)
_______________________________
    हो सकता है तुम्हारा रब तुमपर दया करे, किन्तु यदि तुम फिर उसी पूर्व नीति की ओर पलटे तो हम भी पलटेंगे, और हमने जहन्नम को इनकार करनेवालों के लिए कारागार बना रखा है। (8)
_______________________________
   वास्तव में यह क़ुरआन वह मार्ग दिखाता है जो सबसे सीधाहै और उन मोमिनों को, जो अच्छेकर्म करते हैं, शूभ सूचना देता है कि उनके लिए बड़ा बदला है।(9)
_______________________________
    और यह कि जो आख़िरत को नहींमानते उनके लिए हमने दुखद यातना तैयार कर रखी है। (10)
_______________________________
    मनुष्य उस प्रकार बुराई माँगता है जिस प्रकार उसकी प्रार्थना भलाई के लिए होनी चाहिए। मनुष्य है ही बड़ा उतावला! (11)
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    हमने रात और दिन को दो निशानियाँ बनाई हैं। फिर रात की निशानी को हमने मिटी हुई (प्रकाशहीन) बनाया और दिन की निशानी को हमने प्रकाशमान बनाया, ताकि तुम अपने रब का अनुग्रह (रोज़ी) ढूँढो और ताकि तुम वर्षों की गणना और हिसाब मालूम कर सको, और हर चीज़ को हमने अलग-अलग स्पष्ट कर रखा है। (12)
_______________________________
    हमने प्रत्येक मनुष्य का शकुन-अपशकुन उसकी अपनी गरदन से बाँध दिया है और क़ियामत के दिन हम उसके लिए एक किताब निकालेंगे, जिसको वह खुला हुआपाएगा। (13)
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    "पढ़ ले अपनी किताब (कर्मपत्र)! आज तू स्वयं ही अपना हिसाब लेने के लिए काफ़ीहै।" (14)
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    जो कोई सीधा मार्ग अपनाए तो उसने अपने ही लिए सीधा मार्ग अपनाया और जो पथभ्रष्ट हुआ, तो वह अपने ही बुरे के लिए भटका। और कोई भी बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा। और हम लोगों को यातना नहीं देते जब तक कोई रसूल न भेज दें। (15)
_______________________________
    और जब हम किसी बस्ती को विनष्ट करने का इरादा कर लेतेहैं तो उसके सुखभोगी लोगों कोआदेश देते हैं तो (आदेश मानने के बजाए) वे वहाँ अवज्ञा करने लग जाते हैं, तब उनपर बात पूरीहो जाती है, फिर हम उन्हें बिलकुल उखाड़ फेंकते हैं। (16)
_______________________________
    हमने नूह के पश्चात कितनी ही नस्लों को विनष्ट कर दिया।तुम्हारा रब अपने बन्दों के गुनाहों की ख़बर रखने, देखने के लिए काफ़ी है। (17)
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    जो कोई शीघ्र प्राप्त होनेवाली को चाहता है उसके लिए हम उसी में जो कुछ किसी केलिए चाहते हैं शीघ्र प्रदान कर देते हैं। फिर उसके लिए हमने जहन्नम तैयार कर रखा है जिसमें वह अपयशग्रस्त और ठुकराया हुआ प्रवेश करेगा। (18)
_______________________________
    और जो आख़िरत चाहता हो और उसके लिए ऐसा प्रयास भी करे जैसा कि उसके लिए प्रयास करनाचाहिए और वह हो मोमिन, तो ऐसे ही लोग हैं जिनके प्रयास की क़द्र की जाएगी। (19)
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    इन्हें भी और इनको भी, प्रत्येक को हम तुम्हारे रब की देन में से सहायता पहुँचाएजा रहे हैं, और तुम्हारे रब कीदेन बन्द नहीं है। (20)
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   देखो, कैसे हमने उनके कुछ लोगों को कुछ के मुक़ाबले मेंआगे रखा है! और आख़िरत दर्जों की दृष्टि से सबसे बढ़कर है और श्रेष्ठता की दृष्टि से भीवह सबसे बढ़-चढ़कर है।(21)
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    अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य-प्रभु न बनाओ अन्यथा निन्दित और असहाय होकर बैठे रह जाओगे। (22)
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    तुम्हारे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाएँ तो उन्हें 'उँह' तक न कहो और न उन्हें झिड़को, बल्कि उनसे शिष्टतापूर्वक बात करो। (23)
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    और उनके आगे दयालुता से नम्रता की भुजाएँ बिछाए रखो और कहो, "मेरे रब! जिस प्रकार उन्होंने बालकाल में मुझे पाला है, तू भी उनपर दया कर।" (24)
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    जो कुछ तुम्हारे जी में है उसे तुम्हारा रब भली-भाँति जानता है। यदि तुम सुयोग्य औरअच्छे हुए तो निश्चय ही वह भी ऐसे रुजू करनेवालों के लिए बड़ा क्षमाशील है। (25)
_______________________________
   और नातेदार को उसका हक़ दो मुहताज और मुसाफ़िर को भी - औरफुज़ूलख़र्ची न करो। (26)
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   निश्चय ही फ़ु़ज़ूलख़र्चीकरनेवाले शैतान के भाई हैं औरशैतान अपने रब का बड़ा ही कृतघ्न है। - (27)
_______________________________
   किन्तु यदि तुम्हें अपने रब की दयालुता की खोज में, जिसकी तुम आशा रखते हो, उनसे कतराना भी पड़े, तो इस दशा मेंतुम उनसे नर्म बात करो।(28)
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    और अपना हाथ न तो अपनी गरदनसे बाँधे रखो और न उसे बिलकुल खुला छोड़ दो कि निन्दित और असहाय होकर बैठ जाओ। (29)
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    तुम्हारा रब जिसको चाहता है प्रचुर और फैली हुई रोज़ी प्रदान करता है और इसी प्रकारनपी-तुली भी। निस्संदेह वह अपने बन्दों की ख़बर और उनपर नज़र रखता है। (30)
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   और निर्धनता के भय से अपनी सन्तान की हत्या न करो, हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी। वास्तव में उनकी हत्या बहुत ही बड़ा अपराध है।(31)
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    और व्यभिचार के निकट न जाओ। वह एक अश्लील कर्म और बुरा मार्ग है। (32)
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    किसी जीव की हत्या न करो, जिसे (मारना) अल्लाह ने हराम ठहराया है। यह और बात है कि हक़ (न्याय) का तक़ाज़ा यही हो। और जिसकी अन्यायपूर्वक हत्या की गई हो, उसके उत्तराधिकारी को हमने अधिकारदिया है (कि वह हत्यारे से बदला ले सकता है), किन्तु वह हत्या के विषय में सीमा का उल्लंघन न करे। निश्चय ही उसकी सहायता की जाएगी। (33)
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    और अनाथ के माल को हाथ मत लगाओ सिवाय उत्तम रीति के, यहाँ तक कि वह अपनी युवा अवस्था को पहुँच जाए, और प्रतिज्ञा पूरी करो। प्रतिज्ञा के विषय में अवश्य पूछा जाएगा। (34)
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    और जब नापकर दो तो, नाप पूरी रखो। और ठीक तराज़ू से तौलो, यही उत्तम और परिणाम की दृष्टि से भी अधिक अच्छा है। (35)
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    और जिस चीज़ का तुम्हें ज्ञान न हो उसके पीछे न लगो। निस्संदेह कान और आँख और दिल इनमें से प्रत्येक के विषय में पूछा जाएगा। (36)
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    और धरती में अकड़कर न चलो, न तो तुम धरती को फाड़ सकते होऔर न लम्बे होकर पहाड़ों को पहुँच सकते हो। (37)
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    इनमें से प्रत्येक की बुराई तुम्हारे रब की दृष्टि में अप्रिय ही है। (38)
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    ये तत्वदर्शिता की वे बातें हैं, जिनकी प्रकाशना तुम्हारे रब ने तुम्हारी ओर की है। और देखो, अल्लाह के साथकोई दूसरा पूज्य-प्रभु न घड़ना, अन्यथा जहन्नम में डालदिए जाओगे निन्दित, ठुकराए हुए! (39)
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    क्या तुम्हारे रब ने तुम्हें तो बेटों के लिए ख़ासकिया और स्वयं अपने लिए फ़रिश्तों को बेटियाँ बनाया? बहुत भारी बात है जो तुम कह रहे हो! (40)
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    हमने इस क़ुरआन में विभिन्न ढंग से बात का स्पष्टीकरण किया कि वे चेतें,किन्तु इससे उनकी नफ़रत ही बढ़ती है। (41)
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    कह दो, "यदि उसके साथ अन्य भी पूज्य-प्रभु होते, जैसा कि ये कहते हैं, तब तो वे सिंहासनवाले (के पद) तक पहुँचने का कोई मार्ग अवश्य तलाश करते।" (42)
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    महिमावान है वह! और बहुत उच्च है उन बातों से जो वे कहते हैं! (43)
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    सातों आकाश और धरती और जो कोई भी उनमें है सब उसकी तसबीह (महिमागान) करते हैं और ऐसी कोई चीज़ नहीं जो उसका गुणगान न करती हो। किन्तु तुमउनकी तसबीह को समझते नहीं। निश्चय ही वह अत्यन्त सहनशील,क्षमावान है। (44)
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    जब तुम क़ुरआन पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और उन लोगों के बीच, जो आख़िरत को नहीं मानते एक अदृश्य पर्दे की आड़ कर देते हैं। (45)
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    और उनके दिलों पर भी परदे डाल देते हैं कि वे समझ न सकें। और उनके कानों में बोझ (कि वे सुन न सकें) । और जब तुम क़ुरआन के माध्यम से अपने रब का वर्णन उसे अकेला बताते हुएकरते हो तो वे नफ़रत से अपनी पीठ फेरकर चल देते हैं। (46)
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    जब वे तुम्हारी ओर कान लगाते हैं तो हम भली-भाँति जानते हैं कि उनके कान लगाने का प्रयोजन क्या है और उसे भी जब वे आपस में कानाफूसियाँ करते हैं, जब वे ज़ालिम कहते हैं, "तुम लोग तो बस उस आदमी केपीछे चलते हो जो पक्का जादूगरहै।" (47)
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   देखो, वे कैसी मिसालें तुमपर चस्पाँ करते हैं! वे तो भटक गए हैं, अब कोई मार्ग नहींपा सकते! (48)
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    वे कहते हैं, "क्या जब हम हड्डियाँ और चूर्ण-विचूर्ण होकर रह जाएँगे, तो क्या हम फिर नए बनकर उठेंगे?" (49)
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    कह दो, "तुम पत्थर या लोहा हो जाओ, (50)
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    या कोई और चीज़ जो तुम्हारे जी में अत्यन्त विकट हो।" तब वे कहेंगे, "कौन हमें पलटाकर लाएगा?" कह दो,"वही जिसने तुम्हें पहली बार पैदा किया।" तब वे तुम्हारे आगे अपने सिरों को हिला-हिलाकर कहेंगे, "अच्छा तो वह कब होगा?" कह दो, "कदाचितकि वह निकट ही हो।" (51)
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    जिस दिन वह तुम्हें पुकारेगा, तो तुम उसकी प्रशंसा करते हुए उसकी आज्ञा को स्वीकार करोगे और समझोगे कि तुम बस थोड़ी ही देर ठहरे रहे हो। (52)
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    मेरे बन्दों से कह दो कि"बात वही कहें जो उत्तम हो। शैतान तो उनके बीच उकसाकर फ़साद डालता रहता है। निस्संदेह शैतान मनुष्य का प्रत्यक्ष शत्रु है।" (53)
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    तुम्हारा रब तुमसे भली-भाँति परिचित है। वह चाहेतो तुमपर दया करे या चाहे तो तुम्हें यातना दे। हमने तुम्हें उनकी ज़िम्मेदारी लेनेवाला कोई व्यक्ति बनाकर नहीं भेजा है (कि उन्हें अनिवार्यतः संमार्ग पर ला ही दो)। (54)
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   तुम्हारा रब उससे भी भली-भाँति परिचित है जो कोई आकाशों और धरती में है, और हमने कुछ नबियों को कुछ की अपेक्षा श्रेष्ठता दी और हमने ही दाऊद को ज़बूर प्रदानकी थी। (55)
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    कह दो, "तुम उससे इतर जिनकोभी पूज्य-प्रभु समझते हो उन्हें पुकार कर देखो। वे न तुमसे कोई कष्ट दूर करने का अधिकार रखते हैं और न उसे बदलने का।" (56)
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    जिनको ये लोग पुकारते हैं वे तो स्वयं अपने रब का सामीप्य ढूँढते हैं कि कौन उनमें से सबसे अधिक निकटता प्राप्त कर ले। और वे उसकी दयालुता की आशा रखते हैं और उसकी यातना से डरते रहते हैं।तुम्हारे रब की यातना तो है ही डरने की चीज़! (57)
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   कोई भी (अवज्ञाकारी) बस्ती ऐसी नहीं जिसे हम क़ियामत के दिन से पहले विनष्ट न कर दें या उसे कठोर यातना न दें। यह बात किताब में लिखी जा चुकी है।(58)
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    हमें निशानियाँ (देकर नबी को) भेजने से इसके सिवा किसी चीज़ ने नहीं रोका कि पहले के लोग उनको झुठला चुके हैं। और (उदाहरणार्थ) हमने समूद को स्पष्ट प्रमाण के रूप में ऊँटनी दी, किन्तु उन्होंने उसके साथ ग़लत नीति अपनाकर स्वयं ही अपनी जानों पर ज़ुल्म किया। हम निशानियाँ तो डराने ही के लिए भेजते हैं। (59)
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    जब हमने तुमसे कहा था,"तुम्हारे रब ने लोगों को अपनेघेरे में ले रखा है और जो अलौकिक दर्शन हमने तुम्हें कराया उसे तो हमने लोगों के लिए केवल एक आज़माइश बना दियाऔर उस वृक्ष को भी जिसे क़ुरआन में तिरस्कृत ठहराया गया है। हम उन्हें डराते हैं, किन्तु यह चीज़ उनकी बढ़ी हुईसरकशी ही को बढ़ा रही है।" (60)
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याद करो जब हमने फ़रिश्तों से कहा, "आदम को सजदा करो तो इबलीस को छोड़कर सबने सजदा किया।" उसने कहा, "क्या मैं उसे सजदा करूँ, जिसे तूने मिट्टी से बनाया है?" (61)
_______________________________
   कहने लगा, "देख तो सही, उसे जिसको तूने मेरे मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान की है, यदि तूने मुझे क़ियामत के दिनतक मुहलत दे दी, तो मैं अवश्य ही उसकी सन्तान को वश में करके उसका उन्मूलन कर डालूँगा। केवल थोड़े ही लोग बच सकेंगे।"(62)
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    कहा, "जा, उनमें से जो भी तेरा अनुसरण करेगा, तो तुझ सहित ऐसे सभी लोगों का भरपूर बदला जहन्नम है। (63)
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    उनमें से जिस किसी पर तेरा बस चले उसके क़दम अपनी आवाज़ से उखाड़ दे। और उनपर अपने सवार और अपने प्यादे (पैदल सेना) चढ़ा ला। और माल और सन्तान में भी उनके साथ साझा लगा। और उनसे वादे कर!" - किन्तु शैतान उनसे जो वादे करता है वह एक धोखे के सिवा औरकुछ भी नहीं होता। - (64)
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    "निश्चय ही जो मेरे (सच्चे)बन्दे हैं उनपर तेरा कुछ भी ज़ोर नहीं चल सकता।" तुम्हारारब इसके लिए काफ़ी है कि अपना मामला उसी को सौंप दिया जाए। (65)
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    तुम्हारा रब तो वह है जो तुम्हारे लिए समुद्र में नौका चलाता है, ताकि तुम उसका अनुग्रह (आजीविका) तलाश करो। वह तुम्हारे हाल पर अत्यन्त दयावान है। (66)
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   जब समुद्र में तुम पर कोई आपदा आती है तो उसके सिवा वे सब जिन्हें तुम पुकारते हो, गुम होकर रह जाते हैं, किन्तु फिर जब वह तुम्हें बचाकर थल पर पहुँचा देता है तो तुम उससे मुँह मोड़ जाते हो। मानवबड़ा ही अकृतज्ञ है। (67)
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   क्या तुम इससे निश्चिन्त हो कि वह कभी थल की ओर ले जाकर तुम्हें धँसा दे या तुमपर पथराव करनेवाली आँधी भेज दे; फिर अपना कोई कार्यसाधक न पाओ? (68)
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    या तुम इससे निश्चिन्त हो कि वह फिर तुम्हें उसमें दोबारा ले जाए और तुमपर प्रचंड तूफ़ानी हवा भेज दे औरतुम्हें तुम्हारे इनकार के बदले में डूबो दे। फिर तुम किसी को ऐसा न पाओ जो तुम्हारे लिए इसपर हमारा पीछा करनेवाला हो? (69)
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    हमने आदम की सन्तान को श्रेष्ठता प्रदान की और उन्हें थल औऱ जल में सवारी दी और अच्छी-पाक चीज़ों की उन्हें रोज़ी दी और अपने पैदाकिए हुए बहुत-से प्राणियों कीअपेक्षा उन्हें श्रेष्ठता प्रदान की।(70)
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    (उस दिन से डरो) जिस दिन हम मानव के प्रत्येक गरोह को उसके अपने नायक के साथ बुलाएँगे। फिर जिसे उसका कर्मपत्र उसके दाहिने हाथ में दिया गया, तो ऐसे लोग अपनाकर्मपत्र पढ़ेंगे और उनके साथ तनिक भी अन्याय न होगा। (71)
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    और जो यहाँ अंधा होकर रहा वह आख़िरत में भी अंधा ही रहेगा, बल्कि वह मार्ग से और भी अधिक दूर पड़ा होगा। (72)
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    और वे लगते थे कि तुम्हें फ़ित्ने में डालकर उस चीज़ सेहटा देने को है जिसकी प्रकाशना हमने तुम्हारी ओर की है, ताकि तुम उससे भिन्न चीज़ घड़कर हमपर थोपो, और तब वे तुम्हें अपना घनिष्ठ मित्र बना लेते। (73)
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    यदि हम तुम्हें जमाव प्रदान न करते तो तुम उनकी ओर थोड़ा झुकने के निकट जा पहुँचते। (74)
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    उस समय हम तुम्हें जीवन में भी दोहरा मज़ा चखाते और मृत्यु के पश्चात भी दोहरा मज़ा चखाते। फिर तुम हमारे मुक़ाबले में अपना कोई सहायक न पाते। (75)
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    और निश्चय ही उन्होंने चालचली कि इस भूभाग से तुम्हारे क़दम उखाड़ दें, ताकि तुम्हेंयहाँ से निकालकर ही रहे। और ऐसा हुआ तो तुम्हारे पीछे ये भी रह थोड़े ही पाएँगे। (76)
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    यही कार्य-प्रणाली हमारे उन रसूलों के विषय में भी रही है, जिन्हें हमने तुमसे पहले भेजा था और तुम हमारी कार्य-प्रणाली में कोई अन्तर न पाओगे (77)
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    नमाज़ क़ायम करो सूर्य के ढलने से लेकर रात के छा जाने तक और फ़ज्र (प्रभात) के क़ुरआन (अर्थात फ़ज्र की नमाज़) के पाबन्द रहो। निश्चयही फ़ज्र का क़ुरआन पढ़ना हुज़ूरी की चीज़ है। (78)
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    और रात के कुछ हिस्से में उस (क़ुरआन) के द्वारा जागरण किया करो, यह तुम्हारे लिए तद्धिक (नफ़्ल) है। आशा है कि तुम्हारा रब तुम्हें उठाए ऐसा उठाना जो प्रशंसित हो। (79)
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    और कहो, "मेरे रब! तू मुझे ख़ूबी के साथ दाख़िल कर और ख़ूबी के साथ निकाल, और अपनी ओर से मुझे सहायक शक्ति प्रदान कर।" (80)
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    कह दो, "सत्य आ गया और असत्य मिट गया; असत्य तो मिट जानेवाला ही होता है।" (81)
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    हम क़ुरआन में से जो उतारते हैं वह मोमिनों के लिएशिफ़ा (आरोग्य) और दयालुता है,किन्तु ज़ालिमों के लिए तो वहबस घाटे ही में अभिवृद्धि करता है। (82)
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    मानव पर जब हम सुखद कृपा करते हैं तो वह मुँह फेरता और अपना पहलू बचाता है। किन्तु जब उसे तकलीफ़ पहुँचती है, तो वह निराश होने लगता है। (83)
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    कह दो, "हर एक अपने ढब पर काम कर रहा है, तो अब तुम्हारारब ही भली-भाँति जानता है कि कौन अधिक सीधे मार्ग पर है।" (84)
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    वे तुमसे रूह के विषय में पूछते हैं। कह दो, "रूह का संबंध तो मेरे रब के आदेश से है, किन्तु ज्ञान तुम्हें मिला थोड़ा ही है।" (85)
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    यदि हम चाहें तो वह सब छीन लें जो हमने तुम्हारी ओर प्रकाशना की है, फिर इसके लिए हमारे मुक़ाबले में अपना कोई समर्थक न पाओगे। (86)
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    यह तो बस तुम्हारे रब की दयालुता है। वास्तविकता यह है कि उसका तुमपर बड़ा अनुग्रह है। (87)
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   कह दो, "यदि मनुष्य और जिन्न इसके लिए इकट्ठे हो जाएँ कि क़ुरआन जैसी कोई चीज़लाएँ, तो वे इस जैसी कोई चीज़ न ला सकेंगे, चाहे वे आपस में एक-दूसरे के सहायक ही क्यों न हों।" (88)
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    हमने इस क़ुरआन में लोगों के लिए प्रत्येक तत्वदर्शिताकी बात फेर-फेरकर बयान की, फिरभी अधिकतर लोगों के लिए इनकारके सिवा हर चीज़ अस्वीकार्य ही रही। (89)
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    और उन्होंने कहा, "हम तुम्हारी बात नहीं मानेंगे, जब तक कि तुम हमारे लिए धरती से एक स्रोत प्रवाहित न कर दो,(90)
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   या फिर तुम्हारे लिए खजूरों और अंगूरों का एक बाग़हो और तुम उसके बीच बहती नहरें निकाल दो, (91)
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   या आकाश को टुकड़े-टुकड़े करके हम पर गिरा दो जैसा कि तुम्हारा दावा है, या अल्लाह और फ़रिश्तों ही को हमारे समक्ष ले आओ,(92)
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   या तुम्हारे लिए स्वर्ण-निर्मित एक घर हो जाए या तुम आकाश में चढ़ जाओ, और हम तुम्हारे चढ़ने को भी कदापि नमानेंगे, जब तक कि तुम हम पर एक किताब न उतार लाओ, जिसे हम पढ़ सकें।" कह दो, "महिमावान है मेरा रब! क्या मैं एक संदेशलानेवाला मनुष्य के सिवा कुछ और भी हूँ?" (93)
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    लोगों को जबकि उनके पास मार्गदर्शन आया तो उनको ईमान लाने से केवल यही चीज़ रुकावटबनी कि वे कहने लगे, "क्या अल्लाह ने एक मनुष्य को रसूल बनाकर भेज दिया?" (94)
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    कह दो, "यदि धरती में फ़रिश्ते आबाद होकर चलते-फिरते होते तो हम उनके लिए अवश्य आकाश से किसी फ़रिश्ते ही को रसूल बनाकर भेजते।" (95)
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    कह दो, "मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह ही एक गवाह काफ़ी है। निश्चय ही वह अपने बन्दोंकी पूरी ख़बर रखनेवाला, देखनेवाला है।" (96)
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    जिसे अल्लाह ही मार्ग दिखाए वही मार्ग पानेवाला है और वह जिसे पथभ्रष्ट होने दे, तो ऐसे लोगों के लिए उससे इतर तुम सहायक न पाओगे। क़ियामत के दिन हम उन्हें औंधे मुँह इस दशा में इकट्ठा करेंगे कि वे अंधे-गूँगे और बहरे होंगे।उनका ठिकाना जहन्नम है। जब भीउसकी आग धीमी पड़ने लगेगी तो हम उसे उनके लिए और भड़का देंगे। (97)
_______________________________
    यही उनका बदला है, इसलिए किउन्होंने हमारी आयतों का इनकार किया और कहा, "क्या जब हम केवल हड्डियाँ और चूर्ण-विचूर्ण होकर रह जाएँगे, तो क्या हमें नए सिरे से पैदा करके उठा खड़ा किया जाएगा?" (98)
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    क्या उन्हें यह न सूझा कि जिस अल्लाह ने आकाशों और धरतीको पैदा किया है उसे उन जैसों को भी पैदा करने की सामर्थ्य प्राप्त है? उसने तो उनके लिए एक समय निर्धारित कर रखा है, जिसमें कोई सन्देह नहीं है। फिर भी ज़ालिमों के लिए इनकारके सिवा हर चीज़ अस्वीकार्य ही रही। (99)
_______________________________
    कहो, "यदि कहीं मेरे रब की दयालुता के ख़ज़ाने तुम्हारेअधिकार में होते तो ख़र्च हो जाने के भय से तुम रोके ही रखते। वास्तव में इनसान तो दिल का बड़ा ही तंग है। (100)
_______________________________
हमने मूसा को नौ खुली निशानियाँ प्रदान की थीं। अब इसराईल की सन्तान से पूछ लो कि जब वह उनके पास आया और फ़िरऔन ने उससे कहा, "ऐ मूसा! मैं तो तुम्हें बड़ा जादूगर समझता हूँ।" (101)
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   उसने कहा, "तू भली-भाँति जानता है कि आकाशों और धऱती के रब के सिवा किसी और ने इन (निशानियों) को स्पष्ट प्रमाणबनाकर नहीं उतारा है। और ऐ फ़िरऔन! मैं तो समझता हूँ कि तू विनष्ट होने को है।"(102)
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    अन्ततः उसने चाहा कि उनको उस भूभाग से उखाड़ फेंके, किन्तु हमने उसे और जो उसके साथ थे सभी को डूबो दिया। (103)
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    और हमने उसके बाद इसराईल की सन्तान से कहा, "तुम इस भूभाग में बसो। फिर जब आख़िरतका वादा आ पूरा होगा, तो हम तुम सबको इकट्ठा ला उपस्थित करेंगे।" (104)
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    सत्य के साथ हमने उसे अवतरित किया और सत्य के साथ वह अवतरित भी हुआ। और तुम्हेंतो हमने केवल शुभ सूचना देनेवाला और सावधान करनेवालाबनाकर भेजा है। (105)
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    और क़ुरआन को हमने थोड़ा-थोड़ा करके इसलिए अवतरित किया, ताकि तुम ठहर-ठहरकर उसे लोगों को सुनाओ, और हमने उसे उत्तम रीति से क्रमशः उतारा है। (106)
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    कह दो, "तुम उसे मानो या न मानो, जिन लोगों को इससे पहले ज्ञान दिया गया है, उन्हें जब वह पढ़कर सुनाया जाता है, तो वे ठोड़ियों के बल सजदे में गिर पड़ते हैं। (107)
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    और कहते हैं, "महान और उच्चहै हमारा रब! हमारे रब का वादातो पूरा होकर ही रहता है।" (108)
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    और वे रोते हुए ठोड़ियों के बल गिर जाते हैं और वह (क़ुरआन) उनकी विनम्रता को और बढ़ा देता है। (109)
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  कह दो, "तुम अल्लाह को पुकारो या रहमान को पुकारो याजिस नाम से भी पुकारो, उसके लिए सब अच्छे ही नाम हैं।" और अपनी नमाज़ न बहुत ऊँची आवाज़से पढ़ो और न उसे बहुत चुपके से पढ़ो, बल्कि इन दोनों के बीच मध्य मार्ग अपनाओ।(110)
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    और कहो, "प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसने न तो अपना कोई बेटा बनाया और न बादशाही में उसका कोई सहभागी है और न ऐसा ही है कि वह दीन-हीन हो जिसके कारण बचाव के लिए उसका कोई सहायक मित्र हो।" और बड़ाई बयान करो उसकी, पूर्ण बड़ाई। (111)
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