सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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☆ निकट आ गया लोगों का हिसाब और वे हैं कि असावधान कतराते जा रहे हैं। (1)
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☆ उनके पास जो ताज़ा अनुस्मृति भी उनके रब की ओर से आती है, उसे वे हँसी-खेल करते हुए ही सुनते हैं। (2)
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☆ उनके दिल दिलचस्पियों में खोए हुए होते हैं। उन्होंने चुपके-चुपके कानाफूसी की - अर्थात अत्याचार की नीति अपनानेवालों ने कि "यह तो बस तुम जैसा ही एक मनुष्य है। फिर क्या तुम देखते-बूझते जादू में फँस जाओगे?" (3)
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☆ उसने कहा, "मेरा रब जानता है उस बात को जो आकाश और धरती में हो। और वह भली-भाँति सब कुछ सुनने, जाननेवाला है।" (4)
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☆ नहीं, बल्कि वे कहते हैं,"ये तो संभ्रमित स्वप्न हैं, बल्कि उसने इसे स्वयं ही घड़ लिया है, बल्कि वह एक कवि है! उसे तो हमारे पास कोई निशानी लानी चाहिए, जैसे कि (निशानियाँ देकर) पहले के रसूल भेजे गए थे।" (5)
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☆ इनसे पहले कोई बस्ती भी, जिसको हमने विनष्ट किया, ईमानन लाई। फिर क्या ये ईमान लाएँगे? (6)
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☆ और तुमसे पहले भी हमने पुरुषों ही को रसूल बनाकर भेजा, जिनकी ओर हम प्रकाशना करते थे। - यदि तुम्हें मालूम न हो तो ज़िक्रवालों (किताबवालों) से पूछ लो। - (7)
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☆ उनको हमने कोई ऐसा शरीर नहीं दिया था कि वे भोजन न करते हों और न वे सदैव रहनेवाले ही थे। (8)
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☆ फिर हमने उनके साथ वादे को सच्चा कर दिखाया और उन्हें हमने छुटकारा दिया, और जिसे हम चाहें उसे छुटकारा मिलता है। और मर्यादाहीनों को हमने विनष्ट कर दिया। (9)
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☆ लो, हमने तुम्हारी ओर एक किताब अवतरित कर दी है, जिसमें तुम्हारे लिए याददिहानी है। तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते? (10)
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☆ कितनी ही बस्तियों को, जो ज़ालिम थीं, हमने तोड़कर रख दिया और उनके बाद हमने दूसरे लोगों को उठाया (11)
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☆ फिर जब उन्हें हमारी यातनाका आभास हुआ तो लगे वहाँ से भागने। (12)
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☆ कहा गया, "भागो नहीं! लौट चलो, उसी भोग-विलास की ओर जो तुम्हें प्राप्त था और अपने घरों की ओर ताकि तुमसे पूछा जाए।" (13)
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☆ कहने लगे, "हाय हमारा दुर्भाग्य! निस्संदेह हम ज़ालिम थे।" (14)
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☆ फिर उनकी निरन्तर यही पुकार रही, यहाँ तक कि हमने उन्हें ऐसा कर दिया जैसे कटी हुई खेती, बुझी हुई आग हो। (15)
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☆ और हमने आकाश और धरती को औरजो कुछ उनके मध्य में है कुछ इस प्रकार नहीं बनाया कि हम कोई खेल करने वाले हों। (16)
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☆ यदि हम कोई खेल-तमाशा करना चाहते तो अपने ही पास से कर लेते, यदि हम ऐसा करने ही वालेहोते। (17)
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☆ नहीं, बल्कि हम तो असत्य परसत्य की चोट लगाते हैं, तो वह उसका सिर तोड़ देता है। फिर क्या देखते हैं कि वह मिटकर रह जाता है और तुम्हारे लिए तबाही है उन बातों के कारण जो तुम बनाते हो! (18)
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☆ और आकाशों और धरती में जो कोई है उसी का है। और जो (फ़रिश्ते) उसके पास हैं वे न तो अपने को बड़ा समझकर उसकी बन्दगी से मुँह मोड़ते हैं औऱन वे थकते हैं। (19)
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☆ रात और दिन तसबीह करते रहते हैं, दम नहीं लेते। (20)
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☆ (क्या उन्होंने आकाश से कुछ पूज्य बना लिए हैं)... या उन्होंने धरती से ऐसे इष्ट -पूज्य बना लिए हैं, जो पुनर्जीवित करते हों? (21)
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☆ यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते हैं। (22)
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☆ जो कुछ वह करता है उससे उसकी कोई पूछ नहीं हो सकती, किन्तु इनसे पूछ होगी। (23)
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☆ (क्या ये अल्लाह के हक़ को नहीं पहचानते) या उसे छोड़कर इन्होंने दूसरे इष्ट-पूज्य बना लिए हैं (जिसके लिए इनके पास कुछ प्रमाण हैं)? कह दो,"लाओ, अपना प्रमाण! यह अनुस्मृति है उनकी जो मेरे साथ है और अनुस्मृति है उनकी जो मुझसे पहले हुए हैं, किन्तु बात यह है कि इनमें अधिकतर सत्य को जानते नहीं, इसलिए कतरा रहे हैं। (24)
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☆ हमने तुमसे पहले जो रसूल भीभेजा, उसकी ओर यही प्रकाशना की कि "मेरे सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं। अतः तुम मेरी ही बन्दगी करो।" (25)
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☆ और वे कहते हैं कि "रहमान सन्तान रखता है।" महान है वह! बल्कि वे तो प्रतिष्ठित बन्दे हैं। (26)
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☆ उससे आगे बढ़कर नहीं बोलतेऔर उनके आदेश का पालन करते हैं। (27)
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☆ वह जानता है जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे है, और वे किसी की सिफ़ारिश नहीं करते सिवाय उसके जिसके लिए अल्लाह पसन्द करे। और वे उसके भय से डरते रहते हैं। (28)
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☆ और जो उनमें से यह कहे कि "उसकेसिवा मैं भी एक इष्ट -पूज्य हूँ।" तो हम उसे बदले में जहन्नम देंगे। ज़ालिमों को हम ऐसा ही बदला दिया करते हैं।(29)
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☆ क्या उन लोगों ने जिन्होंने इनकार किया, देखा नहीं कि ये आकाश और धरती बन्द थे। फिर हमने उन्हें खोल दिया। और हमने पानी से हर जीवित चीज़ बनाई, तो क्या वे मानते नहीं? (30)
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☆ और हमने धरती में अटल पहाड़ रख दिए, ताकि कहीं ऐसा नहो कि वह उन्हें लेकर ढुलक जाए और हमने उसमें ऐसे दर्रे बनाए कि रास्तों का काम देते हैं, ताकि वे मार्ग पाएँ। (31)
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☆ और हमने आकाश को एक सुरक्षित छत बनाया, किन्तु वेहैं कि उसकी निशानियों से कतरा जाते हैं। (32)
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☆ वही है जिसने रात और दिन बनाए और सूर्य और चन्द्र भी। प्रत्येक अपने-अपने कक्ष में तैर रहा है। (33)
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☆ हमने तुमसे पहले भी किसी आदमी के लिए अमरता नहीं रखी। फिर क्या यदि तुम मर गए तो वे सदैव रहनेवाले हैं? (34)
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☆ हर जीव को मौत का मज़ा चखनाहै और हम अच्छी और बुरी परिस्थितियों में डालकर तुम सबकी परीक्षा करते हैं। अन्ततः तुम्हें हमारी ही ओर पलटकर आना है। (35)
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☆ जिन लोगों ने इनकार किया वे जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा उपहास ही करते हैं।
(कहते हैं,) "क्या यही वह व्यक्ति है, जो तुम्हारे इष्ट-पूज्यों की बुराई के साथ चर्चा करता है?" और उनका अपना हाल यह है कि वे रहमान के ज़िक्र (स्मरण) से इनकार करते हैं। (36)
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☆ मनुष्य उतावला पैदा किया गया है। मैं तुम्हें शीघ्र हीअपनी निशानियाँ दिखाए देता हूँ। अतः तुम मुझसे जल्दी मत मचाओ। (37)
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☆ वे कहते हैं कि "यह वादा कबपूरा होगा, यदि तुम सच्चे हो?"(38)
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☆ अगर इनकार करनेवाले उस समयको जानते, जबकि वे न तो अपने चहरों की ओर आग को रोक सकेंगे और न अपनी पीठों की ओर से और न उन्हें कोई सहायता ही पहुँच सकेगी तो (यातना की जल्दी न मचाते) (39)
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☆ बल्कि वह अचानक उनपर आएगी और उन्हें स्तब्ध कर देगी। फिर न उसे वे फेर सकेंगे और न उन्हें मुहलत ही मिलेगी। (40)
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☆ तुमसे पहले भी रसूलों की हँसी उड़ाई जा चुकी है, किन्तु उनमें से जिन लोगों नेउनकी हँसी उड़ाई थी उन्हें उसी चीज़ ने आ घेरा, जिसकी वे हँसी उड़ाते थे। (41)
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☆ कहो कि "कौन रहमान के मुक़ाबले में रात-दिन तुम्हारी रक्षा करेगा? बल्कि बात यह है कि वे अपने रब की याददिहानी से कतरा रहे हैं। (42)
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☆ (क्या वे हमें नहीं जानते) या हमसे हटकर उनके और भी इष्ट-पूज्य हैं, जो उन्हें बचा लें? वे तो स्वयं अपनी ही सहायता नहीं कर सकते हैं और न हमारे मुक़ाबले में उनका कोई साथ ही दे सकता है। (43)
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☆ बल्कि बात यह है कि हमने उन्हें और उनके बाप-दादा को सुख-सुविधा की सामग्री प्रदान की, यहाँ तक कि इसी दशामें एक लम्बी मुद्दत उनपर गुज़र गई, तो क्या वे देखते नहीं कि हम इस भूभाग को उसके चतुर्दिक से घटाते हुए बढ़ रहे हैं? फिर क्या वे अभिमानी रहेंगे? (44)
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☆ कह दो, "मैं तो बस प्रकाशनाके आधार पर तुम्हें सावधान करता हूँ।" किन्तु बहरे पुकारको नहीं सुनते, जबकि उन्हें सावधान किया जाए। (45)
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☆ और यदि तुम्हारे रब की यातना का कोई झोंका भी उन्हेंछू जाए तो वे कहने लगें, "हाय, हमारा दुर्भाग्य! निस्संदेह हम ज़ालिम थे।"(46)
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☆ और हम वज़नी, अच्छे न्यायपूर्ण कामों को क़ियामतके दिन के लिए रख रहे हैं। फिरकिसी व्यक्ति पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा, यद्यपि वह (कर्म) राई के दाने के बराबर हो, हम उसे ला उपस्थित करेंगे। और हिसाब करने के लिएहम काफ़ी हैं। (47)
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☆ और हम मूसा और हारून को कसौटी और रौशनी और याददिहानी प्रदान कर चुके हैं, उन डर रखनेवालों के लिए, (48)
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☆ जो परोक्ष में रहते हुए अपने रब से डरते हैं और उन्हें क़ियामत की घड़ी का भयलगा रहता है। (49)
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☆ और यह बरकतवाली अनुस्मृति है, जिसको हमने अवतरित किया है। तो क्या तुम्हें इससे इनकार है (50)
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☆ और इससे पहले हमने इबराहीमको उसकी हिदायत और समझ दी थी - और हम उसे भली-भाँति जानते थे। - (51)
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☆ जब उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा, "ये मूर्तियाँ क्या हैं, जिनसे तुम लगे बैठे हो?" (52)
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☆ वे बोले, "हमने अपने बाप-दादा को इन्हीं की पूजा करते पाया है।" (53)
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☆ उसने कहा, "तुम भी और तुम्हारे बाप-दादा भी खुली गुमराही में हो।" (54)
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☆ उन्होंने कहा, "क्या तू हमारे पास सत्य लेकर आया है या यूँ ही खेल कर रहा है?" (55)
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☆ उसने कहा, "नहीं, बल्कि बातयह है कि तुम्हारा रब आकाशों और धरती का रब है, जिसने उनको पैदा किया है और मैं इसपर तुम्हारे सामने गवाही देता हूँ। (56)
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☆ और अल्लाह की क़सम! इसके पश्चात कि तुम पीठ फेरकर लौटो, मैं तुम्हारी मूर्तियों के साथ अवश्य् एक चाल चलूँगा।" (57)
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☆ अतएव उसने उन्हें खंड-खंड कर दिया सिवाय उनकी एक बड़ी के, कदाचित वे उसकी ओर रुजू करें। (58)
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☆ वे कहने लगे, "किसने हमारे देवताओं के साथ यह हरकत की है?निश्चय ही वह कोई ज़ालिम है।" (59)
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☆ (कुछ लोग) बोले, "हमने एक नवयुवक को, जिसे इबराहीम कहतेहैं, उसके विषय में कुछ कहते सुना है।" (60)
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☆ उन्होंने कहा, "तो उसे ले आओ लोगों की आँखों के सामने कि वे भी गवाह रहें।" (61)
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☆ उन्होंने कहा, "क्या तूने हमारे देवों के साथ यह हरकत की है, ऐ इबराहीम!" (62)
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☆ उसने कहा, "नहीं, बल्कि उनके इस बड़े ने की होगी, उन्हीं से पूछ लो, यदि वे बोलते हों।" (63)
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☆ तब वे उसकी ओर पलटे और कहनेलगे, "वास्तव में, ज़ालिम तो तुम्हीं लोग हो।" (64)
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☆ किन्तु फिर वे बिल्कुल औंधे हो रहे। (फिर बोले,) "तुझेतो मालूम है कि ये बोलते नहीं।" (65)
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☆ उसने कहा, "फिर क्या तुम अल्लाह से इतर उसे पूजते हो, जो न तुम्हें कुछ लाभ पहुँचा सके और न तुम्हें कोई हानि पहुँचा सके? (66)
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☆ धिक्कार है तुमपर, और उनपर भी, जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो! तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?" (67)
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☆ उन्होंने कहा, "जला दो उसे,और सहायक हो अपने देवताओं के, यदि तुम्हें कुछ करना है।" (68)
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☆ हमने कहा, "ऐ आग! ठंडी हो जाऔर सलामती बन जा इबराहीम पर!" (69)
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☆ उन्होंने उसके साथ एक चाल चलनी चाही, किन्तु हमने उन्हीं को घाटे में डाल दिया।(70)
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☆ और हम उसे और लूत को बचाकर उस भूभाग की ओर निकाल ले गए, जिसमें हमने दुनियावालों के लिए बरकतें रखी थीं। (71)
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☆ और हमने उसे इसहाक़ प्रदानकिया और तदधिक याक़ूब भी। और प्रत्येक को हमने नेक बनाया। (72)
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☆ और हमने उन्हें नायक बनायाकि वे हमारे आदेश से मार्ग दिखाते थे और हमने उनकी ओर नेक कामों के करने और नमाज़ की पाबन्दी करने और ज़कात देने की प्रकाशना की, और वे हमारी बन्दगी में लगे हुए थे।(73)
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☆ और रहा लूत तो उसे हमने निर्णय-शक्ति और ज्ञान प्रदान किया और उसे उस बस्ती से छुटकारा दिया जो गन्दे कर्म करती थी। वास्तव में वह बहुत ही बुरी और अवज्ञाकारी क़ौम थी। (74)
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☆ और उसको हमने अपनी दयालुतामें प्रवेश कराया। निस्संदेहवह अच्छे लोगों में से था। (75)
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☆ और नूह की भी चर्चा करो, जबकि उसने इससे पहले हमें पुकारा था, तो हमने उसकी सुन ली और हमने उसे और उसके लोगों को बड़े क्लेश से छुटकारा दिया। (76)
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☆ और उस क़ौम के मुक़ाबले में जिसने हमारी आयतों को झुठला दिया था, हमने उसकी सहायता की। वास्तव में वे बुरे लोग थे। अतः हमने उन सबको डूबो दिया। (77)
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☆ और दाऊद और सुलैमान पर भी हमने कृपा-दृष्टि की। याद करोजबकि वे दोनों खेती के एक झगड़े का निबटारा कर रहे थे, जब रात को कुछ लोगों की बकरियाँ उसे रौंद गई थीं। और उनका (क़ौम के लोगों का) फ़ैसला हमारे सामने था। (78)
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☆ तब हमने उसे सुलैमान को समझा दिया और यूँ तो हरेक को हमने निर्णय-शक्ति और ज्ञान प्रदान किया था। और दाऊद के साथ हमने पहाड़ों को वशीभूत कर दिया था, जो तसबीह करते थे, और पक्षियों को भी। और ऐसा करनेवाले हम ही थे। (79)
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☆ और हमने उसे तुम्हारे लिए एक परिधान (बनाने) की शिल्प-कला भी सिखाई थी, ताकि युद्ध में वह तुम्हारी रक्षा करे। फिर क्या तुम आभार मानते हो? (80)
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☆ और सुलैमान के लिए हमने तेज़ वायु को वशीभूत कर दिया था, जो उसके आदेश से उस भूभाग की ओर चलती थी जिसे हमने बरकत दी थी। हम तो हर चीज़ का ज्ञानरखते हैं। (81)
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☆ और कितने ही शैतानों को भी अधीन किया था, जो उसके लिए ग़ोते लगाते और इसके अतिरिक्त दूसरा काम भी करते थे। और हम ही उनको संभालनेवाले थे। (82)
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☆ और अय्यूब पर भी दया दर्शाई। याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि "मुझे बहुत तकलीफ़ पहुँची है, और तू सबसे बढ़कर दयावान है।" (83)
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☆ अतः हमने उसकी सुन ली और जिस तकलीफ़ में वह पड़ा था उसको दूर कर दिया, और हमने उसेउसके परिवार के लोग दिए और उनके साथ उनके जैसे और भी दिए अपने यहाँ से दयालुता के रूप में और एक याददिहानी के रूप में बन्दगी करनेवालों के लिए। (84)
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☆ और इसमाईल और इदरीस और ज़ुलकिफ़्ल पर भी कृपा-दृष्टि की। इनमें से प्रत्येक धैर्यवानों में से था। (85)
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☆ औऱ उन्हें हमने अपनी दयालुता में प्रवेश कराया। निस्संदेह वे सब अच्छे लोगों में से थे। (86)
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☆ और ज़ुन्नून (मछलीवाले) पर भी दया दर्शाई। याद करो जबकि वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर चल दिया और समझा कि हम उसे तंगी में न डालेंगे। अन्त में उसनेअँधेरों में पुकारा, "तेरे सिवा कोई इष्ट-पूज्य नहीं, महिमावान है तू! निस्संदेह मैं दोषी हूँ।" (87)
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☆ तब हमने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसे ग़म से छुटकारा दिया। इसी प्रकार तो हम मोमिनों को छुटकारा दिया करते हैं। (88)
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☆ और ज़करिया पर भी कृपा की। याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा, "ऐ मेरे रब! मुझे अकेला न छोड़ यूँ, सबसे अच्छा वारिस तो तू ही है।" (89)
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☆ अतः हमने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसे याह्या्प्रदान किया और उसके लिए उसकीपत्नी को स्वस्थ कर दिया। निश्चय ही वे नेकी के कामों में एक-दूसरे के मुक़ाबले मेंजल्दी करते थे। और हमें ईप्सा(चाह) और भय के साथ पुकारते थे और हमारे आगे दबे रहते थे। (90)
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☆ और वह नारी जिसने अपने सतीत्व की रक्षा की थी, हमने उसके भीतर अपनी रूह फूँकी और उसे और उसके बेटे को सारे संसार के लिए एक निशानी बना दिया। (91)
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☆ "निश्चय ही यह तुम्हारा समुदाय एक ही समुदाय है और मैं तुम्हारा रब हूँ। अतः तुममेरी बन्दगी करो।" (92)
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☆ किन्तु उन्होंने आपस में अपने मामलों को टुकड़े-टुकड़े कर डाला। - प्रत्येक को हमारी ओर पलटना है। - (93)
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☆ फिर जो अच्छे कर्म करेगा, शर्त यह कि वह मोमिन हो, तो उसके प्रयास की उपेक्षा न होगी। हम तो उसके लिए उसे लिख रहे हैं।(94)
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☆ और किसी बस्ती के लिए असम्भव है जिसे हमने विनष्ट कर दिया कि उसके लोग (क़ियामत के दिन दंड पाने हेतु) न लौटें। (95)
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☆ यहाँ तक कि वह समय आ जाए जब याजूज और माजूज खोल दिए जाएँगे। और वे हर ऊँची जगह से निकल पड़ेंगे। (96)
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☆ और सच्चा वादा निकट आ लगेगा, तो क्या देखेंगे कि उन लोगों की आँखें फटी की फटी रह गई हैं, जिन्होंने इनकार कियाथा, "हाय, हमारा दुर्भाग्य! हम इसकी ओर से असावधान रहे, बल्कि हम ही अत्याचारी थे।" (97)
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☆ "निश्चय ही तुम और वह कुछ जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो सब जहन्नम के ईधन हो। तुम उसके घाट उतरोगे।" (98)
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☆ यदि ये पूज्य होते, तो उसमें न उतरते। और वे सब उसमें सदैव रहेंगे भी । (99)
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☆ उनके लिए वहाँ शोर गुल होगा और वे वहाँ कुछ भी नहीं सुन सकेंगे। (100)
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☆ रहे वे लोग जिनके लिए पहले ही हमारी ओर से अच्छे इनाम का वादा हो चुका है, वे उससे दूर रहेंगे। (101)
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☆ वे उसकी आहट भी नहीं सुनेंगे और अपनी मनचाही चीज़ों के मध्य सदैव रहेंगे। (102)
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☆ वह सबसे बड़ी घबराहट उन्हें ग़म में न डालेगी। फ़रिश्ते उनका स्वागत करेंगे, "यह तुम्हारा वही दिन है, जिसका तुमसे वादा किया जाता रहा है।" (103)
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☆ जिस दिन हम आकाश को लपेट लेंगे, जैसे पंजी में पन्ने लपेटे जाते हैं, जिस प्रकार पहले हमने सृष्टि का आरम्भ किया था उसी प्रकार हम उसकी पुनरावृत्ति करेंगे। यह हमारे ज़िम्मे एक वादा है। निश्चय ही हमें यह करना है। (104)
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☆ और हम ज़बूर में याददिहानीके पश्चात लिख चुके हैं कि"धरती के वारिस मेरे अच्छे बन्दें होंगे।" (105)
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☆ इसमें बन्दगी करनेवाले लोगों के लिए एक संदेश है। (106)
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☆ हमने तुम्हें सारे संसार के लिए बस सर्वथा दयालुता बनाकर भेजा है। (107)
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☆ कहो, "मेरे पास तो बस यह प्रकाशना की जाती है कि तुम्हारा पूज्य-प्रभु अकेला पूज्य-प्रभु है। फिर क्या तुमआज्ञाकारी होते हो?" (108)
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☆ फिर यदि वे मुँह फेरें तो कह दो, "मैंने तुम्हें सामान्य रूप से सावधान कर दिया है। अब मैं यह नहीं जानता कि जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है वह निकट है या दूर।" (109)
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☆ निश्चय ही वह ऊँची आवाज़ में कही हुई बात को जानता है और उसे भी जानता है जो तुम छिपाते हो। (110)
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☆ मुझे नहीं मालूम कि कदाचितयह तुम्हारे लिए एक परीक्षा हो और एक नियत समय तक के लिए जीवन-सुख। (111)
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☆ उसने कहा, "ऐ मेरे रब, सत्य का फ़ैसला कर दे! और हमारा रब रहमान है। उसी से सहायता की प्रार्थना है, उन बातों के मुक़ाबले में जो तुम लोग बयानकरते हो।" (112)
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