सुरु अल्लाह के नाम से
जो बड़ा कृपाशील अत्यन्त दयावान है।
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☆ ऐ लोगो! अपने रब का डर रखो, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ फैला दीं। अल्लाह का डर रखो, जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे के सामने आपनी माँगें रखते हो। और नाते-रिश्तों का भी तुम्हें ख़याल रखना है। निश्चय ही अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा है। (1)
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☆ और अनाथों को उनका माल दे दो और बुरी चीज़ को अच्छी चीज़ से न बदलो, और न उनके माल को अपने माल के साथ मिलाकर खा जाओ। यह बहुत बड़ा गुनाह है। (2)
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☆ और यदि तुम्हें आशंका हो कि तुम अनाथों (अनाथ लड़कियों) के प्रति न्याय न कर सकोगे तो उनमें से, जो तुम्हें पसन्द हों, दो-दो या तीन-तीन या चार-चार से विवाह कर लो। किन्तु यदि तुम्हें आशंका हो कि तुम उनके साथ एक जैसा व्यवहार न कर सकोगे, तो फिर एक ही पर बस करो, या उस स्त्री (लौंडी) पर जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आई हो, उसी पर बस करो। इसमें तुम्हारे न्याय से न हटने की अधिक सम्भावना है। (3)
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☆ और स्त्रियों को उनके मह्रख़ुशी से अदा करो। हाँ, यदि वेअपनी ख़ुशी से उसमें से तुम्हारे लिए छोड़ दें तो उसेतुम अच्छा और पाक समझकर खाओ। (4)
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☆ और अपने माल, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए जीवन-यापन कासाधन बनाया है, बेसमझ लोगों को न दो। उन्हें उसमें से खिलाते और पहनाते रहो और उनसेभली बात कहो। (5)
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☆ और अनाथों को जाँचते रहो, यहाँ तक कि जब वे विवाह की अवस्था को पहुँच जाएँ, तो फिर यदि तुम देखो कि उनमें सूझ-बूझ आ गई है, तो उनके माल उन्हें सौंप दो, और इस भय से कि कहीं वे बड़े न हो जाएँ तुमउनके माल अनुचित रूप से उड़ाकर और जल्दी करके न खाओ। और जो धनवान हो, उसे तो (इस मालसे) से बचना ही चाहिए। हाँ, जो निर्धन हो, वह उचित रीति से कुछ खा सकता है। फिर जब उनके माल उन्हें सौंपने लगो, तो उनकी मौजूदगी में गवाह बना लो। हिसाब लेने के लिए तो अल्लाह काफ़ी है। (6)
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☆ पुरुषों का उस माल में एक हिस्सा है जो माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो; और स्त्रियों का भी उस माल में एक हिस्सा है जो माल माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो - चाहे वह थोड़ा हो या अधिक हो - यह हिस्सा निश्चित किया हुआ है। (7)
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☆ और जब बाँटने के समय नातेदार और अनाथ और मुहताज उपस्थित हों तो उन्हें भी उसमें से (उनका हिस्सा) दे दो और उनसे भली बात करो। (8)
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☆ और लोगों को डरना चाहिए कि यदि वे स्वयं अपने पीछे निर्बल बच्चे छोड़ते तो उन्हें उन बच्चों के विषय मेंकितना भय होता। तो फिर उन्हेंअल्लाह से डरना चाहिए और ठीक सीधी बात कहनी चाहिए। (9)
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☆ जो लोग अनाथों के माल अन्याय के साथ खाते हैं, वास्तव में वे अपने पेट आग से भरते हैं, और वे अवश्य भड़कती हुई आग में पड़ेंगे। (10)
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☆ अल्लाह तुम्हारी सन्तान केविषय में तुम्हें आदेश देता है कि दो बेटियों के हिस्से के बराबर एक बेटे का हिस्सा होगा; और यदि दो से अधिक बेटियाँ ही हों तो उनका हिस्सा छोड़ी हुई सम्पत्ति का दो तिहाई है। और यदि वह अकेली हो तो उसके लिए आधा है। और यदि मरनेवाले की सन्तान होतो उसके माँ-बाप में से प्रत्येक का उसके छोड़े हुए माल का छठा हिस्सा है। और यदि वह निस्संतान हो और उसके माँ-बाप ही उसके वारिस हों, तोउसकी माँ का हिस्सा तिहाई होगा। और यदि उसके भाई भी हों,तो उसकी माँ का छठा हिस्सा होगा। ये हिस्से, वसीयत जो वह कर जाए पूरी करने या ऋण चुका देने के पश्चात हैं। तुम्हारे बाप भी हैं और तुम्हारे बेटे भी। तुम नहीं जानते कि उनमें से लाभ पहुँचाने की दृष्टि से कौन तुमसे अधिक निकट है। यह हिस्सा अल्लाह का निश्चित किया हुआ है। अल्लाह सब कुछ जानता, समझता है।(11)
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☆ और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो, उसमें तुम्हारा आधा है, यदि उनकी सन्तान न हो। लेकिन यदि उनकी सन्तान हों तो वे जो छोड़ें, उसमें तुम्हारा चौथाई होगा, इसके पश्चात कि जो वसीयत वे कर जाएँ वह पूरी कर दी जाए, या जो ऋण (उनपर) हो वह चुका दिया जाए। और जो कुछ तुम छोड़ जाओ, उसमें उनका (पत्नियों का) चौथाई हिस्सा होगा, यदि तुम्हारी कोई सन्तान न हो। लेकिन यदि तुम्हारी सन्तान है, तो जो कुछ तुम छोड़ोगे, उसमें से उनका (पत्नियों का) आठवाँ हिस्सा होगा, इसके पश्चात कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए, या जो ऋणहो उसे चुका दिया जाए, और यदि किसी पुरुष या स्त्री के न तो कोई सन्तान हो और न उसके माँ-बाप ही जीवित हों और उसके एक भाई या बहन हो तो उन दोनों में से प्रत्येक का छठा हिस्सा होगा। लेकिन यदि वे इससे अधिक हों तो फिर एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे, इसके पश्चात कि जो वसीयत उसनेकी वह पूरी कर दी जाए या जो ऋण (उसपर) हो वह चुका दिया जाए, शर्त यह है कि वह हानिकर न हो।यह अल्लाह की ओर से ताकीदी आदेश है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त सहनशील है।(12)
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☆ ये अल्लाह की निश्चित की हुई सीमाएँ हैं। जो कोई अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों का पालन करेगा, उसे अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। उनमें वहसदैव रहेगा और यही बड़ी सफलताहै। (13)
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☆ परन्तु जो अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करेगा और उसकीसीमाओं का उल्लंघन करेगा उसे अल्लाह आग में डालेगा, जिसमेंवह सदैव रहेगा। और उसके लिए अपमानजनक यातना है। (14)
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☆ और तुम्हारी स्त्रियों में से जो व्यभिचार कर बैठें, उनपर अपने में से चार आदमियोंकी गवाही लो, फिर यदि वे गवाहीदे दें तो उन्हें घरों में बन्द रखो, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे। (15)
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☆ और तुममें से जो दो पुरुष यह कर्म करें, उन्हें प्रताड़ित करो, फिर यदि वे तौबा कर लें और अपने आपको सुधार लें, तो उन्हें छोड़ दो। अल्लाह तौबा क़बूल करनेवाला, दयावान है। (16)
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☆ उन्हीं लोगों की तौबा क़बूल करना अल्लाह के ज़िम्मे है जो भावनाओं में बहकर नादानी से कोई बुराई कर बैठें, फिर जल्द ही तौबा कर लें, ऐसे ही लोग हैं जिनकी तौबा अल्लाह क़बूल करता है। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है। (17)
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☆ और ऐसे लोगों की तौबा नहीं जो बुरे काम किए चले जाते हैं,यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मृत्यु का समय आ जाता है तोकहने लगता है, "अब मैं तौबा करता हूँ।" और इसी प्रकार तौबा उनकी भी नहीं है, जो मरतेदम तक इनकार करनेवाले ही रहे।ऐसे लोगों के लिए हमने दुखद यातना तैयार कर रखी है। (18)
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☆ ऐ ईमान लानेवालो! तुम्हारेलिए वैध नहीं कि स्त्रियों केमाल के ज़बरदस्ती वारिस बन बैठो, और न यह वैध है कि उन्हें इसलिए रोको और तंग करोकि जो कुछ तुमने उन्हें दिया है, उसमें से कुछ ले उड़ो। परन्तु यदि वे खुले रूप में अशिष्ट कर्म कर बैठें तो दूसरी बात है। और उनके साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। फिर यदि वे तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो और अल्लाहउसमें बहुत कुछ भलाई रख दे। (19)
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☆ और यदि तुम एक पत्नी की जगह दूसरी पत्नी लाना चाहो तो, चाहे तुमने उनमें किसी को ढेरों माल दे दिया हो, उसमें से कुछ मत लेना। क्या तुम उसपर झूठा आरोप लगाकर और खुलेरूप में हक़ मारकर उसे लोगे?(20)
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☆ और तुम उसे किस तरह ले सकते हो, जबकि तुम एक-दूसरे से मिल चुके हो और वे तुमसे दृढ़ प्रतिज्ञा भी ले चुकी हैं? (21)
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☆ और उन स्त्रियों से विवाह न करो, जिनसे तुम्हारे बाप विवाह कर चुके हों, परन्तु जो पहले हो चुका सो हो चुका। निस्संदेह यह एक अश्लील और अत्यन्त अप्रिय कर्म है, और बुरी रीति है। (22)
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☆ तुम्हारे लिए हराम है तुम्हारी माएँ, बेटियाँ, बहनें, फूफियाँ, मौसियाँ, भतीजियाँ, भाँजियाँ, और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो और दूधके रिश्ते से तुम्हारी बहनें और तुम्हारी सासें और तुम्हारी पत्नियों की बेटियाँ जो दूसरे पति से हों और जो तुम्हारी गोदों में पलीं- तुम्हारी उन स्त्रियों की बेटियाँ जिनसे तुम सम्भोग कर चुके हो। परन्तु यदि सम्भोग नहीं किया है तो इसमेंतुमपर कोई गुनाह नहीं - और तुम्हारे उन बेटों की पत्नियाँ जो तुमसे पैदा हों और यह भी कि तुम दो बहनों को इकट्ठा करो; परन्तु पहले जो हो चुका सो हो चुका। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।(23)
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☆ और विवाहित स्त्रियाँ भी वर्जित हैं, सिवाय उनके जो तुम्हारी लौंडी हों। यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया है। इनके अतिरिक्त शेष स्त्रियाँ तुम्हारे लिए वैध हैं कि तुम अपने माल के द्वारा उन्हें प्राप्त करो उनकी पाकदामनी की सुरक्षा के लिए, न कि यह काम स्वच्छन्द काम-तृप्ति के लिए हो। फिर उनसे दाम्पत्य जीवन का आनन्द लो तो उसके बदले उनका निश्चित किया हुआ हक़ (मह्र) अदा करो और यदि हक़ निश्चित हो जाने के पश्चात तुम आपम में अपनी प्रसन्नता से कोई समझौता कर लो, तो इसमेंतुम्हारे लिए कोई दोष नहीं। निस्संदेह अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है। (24)
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☆ और तुममें से जिस किसी की इतनी सामर्थ्य न हो कि पाकदामन, स्वतंत्र, ईमानवाली स्त्रियों से विवाह कर सके, तो तुम्हारी वे ईमानवाली जवान लौंडियाँ ही सही जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों। और अल्लाह तुम्हारे ईमान को भली-भाँति जानता है। तुम सब आपस में एक ही हो, तो उनके मालिकों की अनुमति से तुम उनसे विवाह कर लो और सामान्य नियम के अनुसार उन्हें उनका हक़ भी दो। वे पाकदामनी की सुरक्षा करनेवाली हों, स्वच्छन्द काम-तृप्ति न करनेवाली हों और न वे चोरी-छिपे ग़ैरों से प्रेम करनेवाली हों। फिर जब वे विवाहिता बना ली जाएँ और उसकेपश्चात कोई अश्लील कर्म कर बैठें, तो जो दंड सम्मानित स्त्रियों के लिए है, उसका आधा उनके लिए होगा। यह तुममेंसे उस व्यक्ति के लिए है, जिसेख़राबी में पड़ जाने का भय हो,और यह कि तुम धैर्य से काम लो तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है। निस्संदेह अल्लाह बहुत क्षमाशील, दयावान है। (25)
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☆ अल्लाह चाहता है कि तुम पर स्पष्ट कर दे और तुम्हें उन लोगों के तरीक़ों पर चलाए, जो तुमसे पहले हुए हैं और तुमपर दयादृष्टि करे। अल्लाह तो सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है। (26)
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☆ और अल्लाह चाहता है कि तुमपर दयादृष्टि करे, किन्तु जो लोग अपनी तुच्छ इच्छाओं कापालन करते हैं, वे चाहते हैं कि तुम राह से हटकर बहुत दूर जा पड़ो। (27)
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☆ अल्लाह चाहता है कि तुमपर से बोझ हलका कर दे, क्योंकि इनसान निर्बल पैदा किया गया है। (28)
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☆ ऐ ईमान लानेवालो! आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत तरीक़े से न खाओ - यह और बात है कि तुम्हारी आपस में रज़ामन्दी से कोई सौदा हो - और न अपनों कीहत्या करो। निस्संदेह अल्लाहतुमपर बहुत दयावान है। (29)
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☆ और जो कोई ज़ुल्म और ज़्यादती से ऐसा करेगा, तो उसे हम जल्द ही आग में झोंक देंगे, और यह अल्लाह के लिए सरल है। (30)
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☆ यदि तुम उन बड़े गुनाहों से बचते रहो, जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है, तो हम तुम्हारी बुराइयों को तुमसे दूर कर देंगे और तुम्हें प्रतिष्ठित स्थान में प्रवेशकराएँगे। (31)
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☆ और उसकी कामना न करो जिसमें अल्लाह ने तुमसे किसी को किसी से उच्च रखा है। पुरुषों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है और स्त्रियों ने जो कुछ कमायाहै, उसके अनुसार उनका हिस्सा है। अल्लाह से उसका उदार दान चाहो। निस्संदेह अल्लाह को हर चीज़ का ज्ञान है। (32)
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☆ और प्रत्येक माल के लिए, जोमाँ-बाप और नातेदार छोड़ जाएँ, हमने वारिस ठहरा दिए हैं और जिन लोगों से अपनी क़समों के द्वारा तुम्हारा पक्का मामला हुआ हो, तो उन्हें भी उनका हिस्सा दो। निस्संदेह हर चीज़ अल्लाह के समक्ष है। (33)
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☆ पति पत्नियों के संरक्षक और निगराँ हैं, क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रखा है, और इसलिए भी कि पतियों ने अपने माल ख़र्च किए हैं, तो नेक पत्नियाँ तो आज्ञापालन करनेवाली होती हैं और गुप्त बातों की रक्षा करती हैं, क्योंकि अल्लाह ने उनकी रक्षा की है। और जो पत्नियाँ ऐसी हों जिनकी सरकशी का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें अकेली छोड़ दो और (अति आवश्यक हो तो) उन्हें मारो भी। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगें, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूँढो। अल्लाह सबसे उच्च, सबसे बड़ा है। (34)
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☆ और यदि तुम्हें पति-पत्नी के बीच बिगाड़ का भय हो, तो एक फ़ैसला करनेवाला पुरुष के लोगों में से और एक फ़ैसला करनेवाला स्त्री के लोगों में से नियुक्त करो, यदि वे दोनों सुधार करना चाहेंगे, तोअल्लाह उनके बीच अनुकूलता पैदा कर देगा। निस्संदेह, अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, ख़बर रखनेवाला है। (35)
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☆ अल्लाह की बन्दगी करो और उसके साथ किसी को साझी न बनाओ और अच्छा व्यवहार करो माँ-बापके साथ, नातेदारों, अनाथों और मुहताजों के साथ, नातेदार पड़ोसियों के साथ और अपरिचित पड़ोसियों के साथ और साथ रहनेवाले व्यक्ति के साथ और मुसाफ़िर के साथ और उनके साथ भी जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों। अल्लाह ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता, जो इतराता और डींगें मारता हो। (36)
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☆ वे जो स्वयं कंजूसी करते हैं और लोगों को भी कंजूसी पर उभारते हैं और अल्लाह ने अपनेउदार दान से जो कुछ उन्हें दे रखा होता है, उसे छिपाते हैं, तो हमने अकृतज्ञ लोगों के लिएअपमानजनक यातना तैयार कर रखी है। (37)
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☆ वे जो अपने माल लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करते हैं, न अल्लाह पर ईमान रखते हैं, न अन्तिम दिन पर, और जिस किसी का साथी शैतान हुआ, तो वहबहुत ही बुरा साथी है। (38)
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☆ उनका क्या बिगड़ जाता, यदि वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाते और जो कुछ अल्लाह ने उन्हें दिया है, उसमें से ख़र्च करते? अल्लाह उन्हें भली-भाँति जानता है। (39)
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☆ निस्संदेह अल्लाह रत्ती-भर भी ज़ुल्म नहीं करता और यदि कोई एक नेकी हो तो वह उसे कई गुना बढ़ा देगा और अपनी ओर से बड़ा बदला देगा। (40)
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☆ फिर क्या हाल होगा जब हम प्रत्येक समुदाय में से एक गवाह लाएँगे और स्वयं तुम्हें इन लोगों के मुक़ाबले में गवाह बनाकर पेश करेंगे? (41)
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☆ उस दिन वे लोग जिन्होंने इनकार किया होगा और रसूल की अवज्ञा की होगी, यही चाहेंगे कि किसी तरह उन्हें धरती में समोकर उसे बराबर कर दिया जाए।वे अल्लाह से कोई बात भी न छिपा सकेंगे। (42)
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☆ ऐ ईमान लानेवालो! नशे की दशा में नमाज़ में व्यस्त न हो, जब तक कि तुम यह न जानने लगो कि तुम क्या कह रहे हो। औरइसी प्रकार नापाकी की दशा मेंभी (नमाज़ में व्यस्त न हो), जबतक कि तुम स्नान न कर लो, सिवाय इसके कि तुम सफ़र में हो। और यदि तुम बीमार हो या सफ़र में हो, या तुममें से कोईशौच करके आए या तुमने स्त्रियों को हाथ लगाया हो, फिर तुम्हें पानी न मिले, तो पाक मिट्टी से काम लो और उसपर हाथ मारकर अपने चहरे और हाथोंपर मलो। निस्संदेह अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला, अत्यन्त क्षमाशील है। (43)
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☆ क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें सौभाग्य प्रदान हुआ था अर्थात किताब दी गई थी? वे पथभ्रष्टता के ख़रीदार बने हुए हैं और चाहते हैं कि तुम भी रास्ते से भटक जाओ। (44)
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☆ अल्लाह तुम्हारे शत्रुओं को भली-भाँति जानता है। अल्लाह एक संरक्षक के रूप मेंकाफ़ी है और अल्लाह एक सहायक के रूप में भी काफ़ी है। (45)
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☆ वे लोग जो यहूदी बन गए, वे शब्दों को उनके स्थानों से दूसरी ओर फेर देते हैं और कहते हैं, "समि'अना व 'असैना" (हमने सुना, लेकिन हम मानते नहीं); और "इसम'अ ग़ै-र मुसम'इन" (सुनो हालाँकि तुम सुनने के योग्य नहीं हो) और"राइना" (हमारी ओर ध्यान दो) - यह वे अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़कर और दीन पर चोटेंकरते हुए कहते हैं। और यदि वे कहते, "समिअ'ना व अ-त'अना" (हमने सुना और माना) और "इसम'अ"(सुनो) और "उनज़ुरना" (हमारी ओर निगाह करो) तो यह उनके लिए अच्छा और अधिक ठीक होता। किन्तु उनपर तो उनके इनकार केकारण अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है। फिर वे ईमान थोड़े ही लाते हैं। (46)
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☆ ऐ लोगो! जिन्हें किताब दी गई, उस चीज़ को मानो जो हमने उतारी है, जो उसकी पुष्टि में है, जो स्वयं तुम्हारे पास है,इससे पहले कि हम चेहरों की रूपरेखा को मिटाकर रख दें और उन्हें उनके पीछे की ओर फेर दें या उनपर लानत करें, जिस प्रकार हमने सब्तवालों पर लानत की थी। और अल्लाह का आदेश तो लागू होकर ही रहता है। (47)
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☆ अल्लाह इसको क्षमा नहीं करेगा कि उसका साझी ठहराया जाए। किन्तु उससे नीचे दर्जे के अपराध को जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा और जिस किसी ने अल्लाह का साझी ठहराया, तो उसने एक बड़ा झूठ घड़ लिया। (48)
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☆ क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अपने को पूर्ण एवं शिष्ट होने का दावा करते हैं? (कोई यूँ ही शिष्ट नहीं हुआ करता) बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है, पूर्णता एवं शिष्टता प्रदान करता है। और उनके साथ तनिक भी अत्याचार नहीं किया जाता। (49)
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☆ देखो तो सही, वे अल्लाह पर कैसा झूठ मढ़ते हैं? खुले गुनाह के लिए तो यही पर्याप्तहै। (50)
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☆ क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें किताब का एक हिस्सा दिया गया? वे अवास्तविक चीज़ों और ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) को मानते हैं। और अधर्मियों के विषय में कहते हैं, "ये ईमानवालों से बढ़कर मार्ग पर हैं।" (51)
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☆ वही है जिनपर अल्लाह ने लानत की है, और जिसपर अल्लाह लानत कर दे, उसका तुम कोई सहायक कदापि न पाओगे। (52)
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☆ या बादशाही में इनका कोई हिस्सा है? फिर तो ये लोगों कोफूटी कौड़ी तक भी न देते। (53)
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☆ या ये लोगों से इसलिए ईर्ष्या करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें अपने उदार दान से अनुग्रहीत कर दिया? हमने तो इबराहीम के लोगों को किताब औरहिकमत (तत्वदर्शिता) दी और उन्हें बड़ा राज्य प्रदान किया। (54)
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☆ फिर उनमें से कोई उसपर ईमान लाया और उनमें से किसी ने उससे किनारा खींच लिया। और(ऐसे लोगों के लिए) जहन्नम की भड़कती आग ही काफ़ी है। (55)
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☆ जिन लोगों ने हमारी आयतों का इनकार किया, उन्हें हम जल्द ही आग में झोंकेंगे। जब भी उनकी खालें पक जाएँगी, तो हम उन्हें दूसरी खालों में बदल दिया करेंगे, ताकि वे यातना का मज़ा चखते ही रहें। निस्संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।(56)
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☆ और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, उन्हें हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जहाँ वे सदैव रहेंगे। उनके लिए वहाँ पाक जोड़े होंगे और हम उन्हेंघनी छाँव में दाख़िल करेंगे। (57)
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☆ अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचा दिया करो। और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो न्यायपूर्वक फ़ैसला करो। अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निस्संदेह, अल्लाह सब कुछ सुनता, देखता है। (58)
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☆ ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह कीआज्ञा का पालन करो और रसूल का कहना मानो और उनका भी कहना मानो जो तुममें अधिकारी लोग हैं। फिर यदि तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए, तो उसे तुम अल्लाह और रसूल की ओर लौटाओ, यदि तुम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हो। यही उत्तम है और परिणाम की दृष्टि से भी अच्छा है।(59)
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☆ क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जो दावा तो यह करतेहैं कि वे उस चीज़ पर ईमान रखते हैं, जो तुम्हारी ओर उतारी गई है और जो तुमसे पहले उतारी गई है। और चाहते हैं कि अपना मामला ताग़ूत के पास ले जाकर फ़ैसला कराएँ, जबकि उन्हें हुक्म दिया गया है कि वे उसका इनकार करें? परन्तु शैतान तो उन्हें भटकाकर बहुत दूर डाल देना चाहता है।(60)
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☆ और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की ओर जो अल्लाह नेउतारी है और आओ रसूल की ओर तो तुम मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) को देखते हो कि वे तुमसे कतराकर रह जाते हैं।(61)
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☆ फिर कैसी बात होगी कि जब उनकी अपनी ही करतूतों के कारणउनपर बड़ी मुसीबत आ पड़ेगी? फिर वे तुम्हारे पास अल्लाह की क़समें खाते हुए आते हैं कि हम तो केवल भलाई और बनाव चाहते थे। (62)
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☆ ये वे लोग हैं जिनके दिलों की बात अल्लाह भली-भाँति जानता है; तो तुम उन्हें जाने दो और उन्हें समझाओ और उनसे उनके विषय में वह बात कहो जो प्रभावकारी हो।(63)
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☆ हमने जो रसूल भी भेजा, इसलिए भेजा कि अल्लाह की अनुमति से उसकी आज्ञा का पालनकिया जाए। और यदि यह उस समय, जबकि इन्होंने स्वयं अपने ऊपर ज़ुल्म किया था, तुम्हारेपास आ जाते और अल्लाह से क्षमा चाहते और रसूल भी इनके लिये क्षमा की प्रार्थना करता तो निश्चय ही वे अल्लाह को अत्यन्त क्षमाशील और दयावान पाते। (64)
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☆ तो तुम्हें तुम्हारे रब कीक़सम! ये ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के झगड़ों में ये तुमसे फ़ैसला न कराएँ। फिर जो फ़ैसला तुम कर दो, उसपर ये अपने दिलों में कोई तंगी न पाएँ और पूरी तरह मान लें। (65)
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☆ और यदि कहीं हमने उन्हें आदेश दिया होता कि "अपनों को क़त्ल करो या अपने घरों से निकल जाओ।" तो उनमें से थोड़े ही ऐसा करते। हालाँकि जो नसीहत उन्हें दी जाती है, अगर वे उसे व्यवहार में लाते तो यह बात उनके लिए अच्छी होती और ज़्यादा जमाव पैदा करनेवाली होती। (66)
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☆ और उस समय हम उन्हें अपनी ओर से निश्चय ही बड़ा बदला प्रदान करते। (67)
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☆ और उन्हें सीधे मार्ग पर भी लगा देते। (68)
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☆ जो अल्लाह और रसूल की आज्ञा का पालन करता है, तो ऐसेही लोग उन लोगों के साथ हैं जिनपर अल्लाह की कृपा दृष्टि रही है - वे नबी, सिद्दीक़, शहीद और अच्छे लोग हैं। और वे कितने अच्छे साथी हैं। (69)
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☆ यह अल्लाह का उदार अनुग्रहहै। और काफ़ी है अल्लाह, इस हाल में कि वह भली-भाँति जानता है। (70)
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☆ ऐ ईमान लानेवालो! अपने बचावकी सामग्री (हथियार आदि) सँभालो। फिर या तो अलग-अलग टुकड़ियों में निकलो या इकट्ठे होकर निकलो। (71)
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☆ तुममें से कोई ऐसा भी है जोढीला पड़ जाता है, फिर यदि तुमपर कोई मुसीबत आए तो कहने लगता है कि अल्लाह ने मुझपर कृपा की कि मैं इन लोगों के साथ न गया। (72)
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☆ परन्तु यदि अल्लाह की ओर से तुमपर कोई उदार अनुग्रह होतो वह इस प्रकार से जैसे तुम्हारे और उनके बीच प्रेम का कोई सम्बन्ध ही नहीं, कहता है, "क्या ही अच्छा होता कि मैं भी उनके साथ होता, तो बड़ीसफलता प्राप्त करता।" (73)
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☆ तो जो लोग आख़िरत (परलोक) के बदले सांसारिक जीवन का सौदा करें, तो उन्हें चाहिए कि अल्लाह के मार्ग में लड़ें।जो अल्लाह के मार्ग में लड़ेगा, चाहे वह मारा जाए या विजयी रहे, उसे हम शीघ्र ही बड़ा बदला प्रदान करेंगे। (74)
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☆ तुम्हें क्या हुआ है कि अल्लाह के मार्ग में और उन कमज़ोर पुरुषों, औरतों और बच्चों के लिए युद्ध न करो, जोप्रार्थनाएँ करते हैं कि"हमारे रब! तू हमें इस बस्ती सेनिकाल, जिसके लोग अत्याचारी हैं। और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई समर्थक नियुक्त कर और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई सहायक नियुक्त कर।" (75)
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☆ ईमान लानेवाले तो अल्लाह के मार्ग में युद्ध करते हैं और अधर्मी लोग ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) के मार्ग में युद्ध करते हैं। अतः तुम शैतान के मित्रों से लड़ो। निश्चय ही, शैतान की चाल बहुत कमज़ोर होती है। (76)
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☆ क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? फिर जब उन्हें युद्ध का आदेश दिया गया तो क्या देखते हैं कि उनमें से कुछ लोगों का हाल यह है कि वे लोगों से ऐसा डरनेलगे जैसे अल्लाह का डर हो या यह डर उससे भी बढ़कर हो। कहने लगे, "हमारे रब! तूने हमपर युद्ध क्यों अनिवार्य कर दिया? क्यों न थोड़ी मुहलत हमें और दी?" कह दो, "दुनिया कीपूँजी बहुत थोड़ी है, जबकि आख़िरत उस व्यक्ति के लिए अधिक अच्छी है जो अल्लाह का डर रखता हो और तुम्हारे साथ तनिक भी अन्याय न किया जाएगा।(77)
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☆ "तुम जहाँ कहीं भी होगे, मृत्यु तो तुम्हें आकर रहेगी;चाहे तुम मज़बूत बुर्जों (क़िलों) में ही (क्यों न) हो।" यदि उन्हें कोई अच्छी हालत पेश आती है तो कहते हैं, "यह तोअल्लाह के पास से है।" परन्तु यदि उन्हें कोई बुरी हालत पेशआती है तो कहते हैं, "यह तुम्हारे कारण है।" कह दो,"हरेक चीज़ अल्लाह के पास से है।" आख़िर इन लोगों को क्या हो गया कि ये ऐसे नहीं लगते किकोई बात समझ सकें? (78)
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☆ तुम्हें जो भी भलाई प्राप्त होती है, वह अल्लाह की ओर से है और जो बुरी हालत तुम्हें पेश आ जाती है तो वह तुम्हारे अपने ही कारण पेश आती है। हमने तुम्हें लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा है और (इस पर) अल्लाह का गवाह होना काफ़ी है। (79)
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☆ जिसने रसूल की आज्ञा का पालन किया, उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया और जिसने मुँह मोड़ा तो हमने तुम्हें ऐसे लोगों पर कोई रखवाला बनाकर तो नहीं भेजा है। (80)
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☆ और वे दावा तो आज्ञापालन का करते हैं, परन्तु जब तुम्हारे पास से हटते हैं तो उनमें एक गरोह अपने कथन के विपरीत रात में षड्यंत्र करता है । जो कुछ वे षड्यंत्र करते हैं, अल्लाह उसे लिख रहा है। तो तुम उनसे रुख़ फेर लो और अल्लाह पर भरोसा रखो, और अल्लाह का कार्यसाधक होना काफ़ी है! (81)
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☆ क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सी बेमेल बातेंपाते। (82)
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☆ जब उनके पास निश्चिन्तता या भय की कोई बात पहुँचती है तो उसे फैला देते हैं, हालाँकि अगर वे उसे रसूल और अपने समुदाय केउत्तरदायीव्यक्तियों तक पहुँचाते तो उसे वे लोग जान लेते जो उनमें उसकी जाँच कर सकते हैं। और यदि तुमपर अल्लाह का उदार अनुग्रह और उसकी दयालुता न होती, तो थोड़े लोगों के सिवा तुम सब शैतान के पीछे चलने लग जाते।(83)
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☆ अतः अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो - तुमपर तो बस तुम्हारी अपनी ही ज़िम्मेदारी है - और ईमानवालों की कमज़ोरियों को दूर करो और उन्हें (युद्ध के लिए) उभारो। इसकी बहुत सम्भावना है कि अल्लाह इनकार करनेवालों के ज़ोर को रोक लगादे। अल्लाह बड़ा ज़ोरवाला और कठोर दंड देनेवाला है। (84)
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☆ जो कोई अच्छी सिफ़ारिश करेगा, उसे उसके कारण प्रतिदान मिलेगा और जो बुरी सिफ़ारिश करेगा, तो उसके कारणउसका बोझ उसपर पड़कर रहेगा। अल्लाह को तो हर चीज़ पर क़ाबू हासिल है। (85)
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☆ और तुम्हें जब सलामती की कोई दुआ दी जाए, तो तुम सलामतीकी उससे अच्छी दुआ दो या उसी को लौटा दो। निश्चय ही, अल्लाह हर चीज़ का हिसाब रखताहै। (86)
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☆ अल्लाह के सिवा कोई इष्ट-पूज्य नहीं। वह तुम्हें क़ियामत के दिन की ओर ले जाकर इकट्ठा करके रहेगा, जिसके आनेमें कोई संदेह नहीं, और अल्लाह से बढ़कर सच्ची बात औरकिसकी हो सकती है। (87)
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☆ फिर तुम्हें क्या हो गया है कि कपटाचारियों (मुनाफ़िक़ों) के विषय में तुम दो गरोह हो रहे हो, यद्यपिअल्लाह ने तो उनकी करतूतों केकारण उन्हें उल्टा फेर दिया है? क्या तुम उसे मार्ग पर लाना चाहते हो जिसे अल्लाह नेगुमराह छोड़ दिया है? हालाँकिजिसे अल्लाह मार्ग न दिखाए, उसके लिए तुम कदापि कोई मार्गनहीं पा सकते। (88)
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☆ वे तो चाहते हैं कि जिस प्रकार वे स्वयं अधर्मी हैं, उसी प्रकार तुम भी अधर्मी बनकर उन जैसे हो जाओ; तो तुम उनमें से अपने मित्र न बनाओ, जब तक कि वे अल्लाह के मार्ग में घर-बार न छोड़ें। फिर यदि वे इससे पीठ फेरें तो उन्हें पकड़ो, और उन्हें क़त्ल करो जहाँ कहीं भी उन्हें पाओ - तो उनमें से किसी को न अपना मित्र बनाना और न सहायक - (89)
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☆ सिवाय उन लोगों के जो ऐसे लोगों से सम्बन्ध रखते हों, जिनसे तुम्हारे और उनके बीच कोई समझौता हो या वे तुम्हारेपास इस दशा में आएँ कि उनके दिल इससे तंग हो रहे हों कि वेतुमसे लड़ें या अपने लोगों सेलड़ाई करें। यदि अल्लाह चाहता तो उन्हें तुमपर क़ाबू दे देता। फिर तो वे तुमसे अवश्य लड़ते; तो यदि वे तुमसे अलग रहें और तुमसे न लड़ें और संधि के लिए तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाएँ तो उनके विरुद्ध अल्लाह ने तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं रखा है। (90)
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☆ अब तुम कुछ ऐसे लोगों को भीपाओगे, जो चाहते हैं कि तुम्हारी ओर से निश्चिन्त होकर रहें और अपने लोगों की ओर से भी निश्चिन्त होकर रहें। परन्तु जब भी वे फ़साद और उपद्रव की ओर फेरे गए तो वेउसी में औंधे जा गिरे। तो यदि वे तुमसे अलग-थलग न रहें और तुम्हारी ओर सुलह का हाथ न बढ़ाएँ, और अपने हाथ न रोकें, तो तुम उन्हें पकड़ो और क़त्लकरो, जहाँ कहीं भी तुम उन्हें पाओ। उनके विरुद्ध हमने तुम्हें खुला अधिकार दे रखा है। (91)
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☆ किसी ईमानवाले का यह काम नहीं कि वह किसी ईमानवाले की हत्या करे, भूल-चूक की बात और है। और कोई व्यक्ति यदि ग़लतीसे किसी ईमानवाले की हत्या करदे, तो एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा और अर्थदंड उस (मारे गए व्यक्ति) के घरवालों को सौंपा जाए। यह और बात है कि वे अपनी ख़ुशी से छोड़ दें। और यदि वह उन लोगों में से हो, जो तुम्हारे शत्रु हों और वह (मारा जानेवाला) स्वयं मोमिन रहा तो एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करना होगा। और यदि वह उन लोगों में से हो कि तुम्हारे और उनके बीच कोई संधि और समझौता हो, तोअर्थदंड उसके घरवालों को सौंपा जाए और एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करना होगा। लेकिन जो (ग़ुलाम) न पाए तो वह निरन्तर दो मास के रोज़े रखे।यह अल्लाह की ओर से निश्चित किया हुआ उसकी तरफ़ पलट आने का तरीक़ा है। अल्लाह तो सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है।(92)
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☆ और जो व्यक्ति जान-बूझकर किसी मोमिन की हत्या करे, तो उसका बदला जहन्नम है, जिसमें वह सदा रहेगा; उसपर अल्लाह का प्रकोप और उसकी फिटकार है और उसके लिए अल्लाह ने बड़ी यातना तैयार कर रखी है। (93)
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☆ ऐ ईमान लानेवालो! जब तुम अल्लाह के मार्ग में निकलो तोअच्छी तरह पता लगा लो और जो तुम्हें सलाम करे, उससे यह न कहो कि तुम ईमान नहीं रखते, औरइससे तुम्हारा ध्येय यह हो किसांसारिक जीवन का माल प्राप्त करो। अल्लाह के पास तो बहुत अधिक प्राप्त माल है।पहले तुम भी ऐसे ही थे, फिर अल्लाह ने तुमपर उपकार किया, तो अच्छी तरह पता लगा लिया करो। जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखता है। (94)
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☆ ईमानवालों में से वे लोग जो बिना किसी कारण के बैठे रहते हैं और जो अल्लाह के मार्ग में अपने धन और प्राणोंके साथ जी-तोड़ कोशिश करते हैं, दोनों समान नहीं हो सकते। अल्लाह ने बैठे रहनेवालों की अपेक्षा अपने धन और प्राणों से जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का दर्जा बढ़ा रखा है। यद्यपि प्रत्येक के लिए अल्लाह ने अच्छे बदले का वचन दिया है। परन्तु अल्लाह ने बैठे रहने वालों की अपेक्षा जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का बड़ा बदला रखा है। (95)
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☆ उसकी ओर से दर्जे हैं और क्षमा और दयालुता है। और अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है। (96)
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☆ जो लोग अपने-आप पर अत्याचारकरते हैं, जब फ़रिश्ते उस दशा में उनके प्राण ग्रस्त कर लेते हैं, तो कहते हैं, "तुम किस दशा में पड़े रहे?" वे कहते हैं, "हम धरती में निर्बलऔर बेबस थे।" फ़रिश्ते कहते हैं, "क्या अल्लाह की धरती विस्तृत न थी कि तुम उसमें घर-बार छोड़कर कहीं चले जाते?" तो ये वही लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है। - और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।(97)
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☆ सिवाय उन बेबस पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के जिनके बस में कोई उपाय नहीं और न कोई राह पा रहे हैं; (98)
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☆ तो सम्भव है कि अल्लाह ऐसे लोगों को छोड़ दे; क्योंकि अल्लाह छोड़ देनेवाला और बड़ा क्षमाशील है। (99)
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☆ जो कोई अल्लाह के मार्ग में घरबार छोड़कर निकलेगा, वहधरती में शरण लेने की बहुत जगह और समाई पाएगा, और जो कोई अपने घर में सब कुछ छोड़कर अल्लाह और उसके रसूल की ओर निकले और उसकी मृत्यु हो जाए, तो उसका प्रतिदान अल्लाह के ज़िम्मे हो गया। अल्लाह बहुत क्षमाशील, दयावान है। (100)
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